गवेधुका के फायदे | gavedhuka ke fayde

पान के फायदे

पान के फायदे 

पान भारत के इतिहास एवं परंपराओं से गहरे से जुड़ा है, इसका उद्भव स्थल मलाया द्वीप है, पान विभिन्न भारतीय भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे ताम्बूल (संस्कृत), पक्कू (तेलुगू), वेटिलाई (तमिल और मलयालम), नागवेल ( मराठी) और नागुरवेल (गुजराती) आदि, पान का प्रयोग हिन्दू संस्कार से जुड़ा है जैसे नामकरण, यज्ञोपवीत आदि, वेदों में भी पान के सेवन की पवित्रता का वर्णन है।

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यह तांबूली या नागवल्ली नामक लता का पत्ता है, खैर, चूना, सुपारी के योग से इसका बीड़ा लगाया जाता है और मुख की सुंदरता, सुगंधि, शुद्धि, श्रृंगार आदि के लिये चबा चबाकर उसे खाया जाता है, इसके साथ विभिन्न प्रकार के सुगंधित, असुगंधित तमाखू, तरह तरह के पान के मसाले, लवंग, कपूर, सुगंधद्रव्य आदि का भी प्रयोग किया जाता है, मद्रास में बिना खैर का भी पान खाया जाता है, विभिन्न प्रदेशों में अपने-अपने स्वाद के अनुसार इसके प्रयोग में तरह-तरह के मसालों के साथ पान खाने का रिवाज है, जहाँ भोजन आदि के बाद तथा उत्सवादि में पान बीड़ा लाभकर और शोभाकर होता है, वहीं यह एक दुर्व्यसन भी हो जाता है, तम्बाकू के साथ अधिक पान खाने वाले लोग प्राय: इसके व्यसनी हो जाते हैं, अधिक पान खाने के कारण बहुतों के दाँत खराब हो जाते हैं, उनमें तरह-तरह के रोग लग जाते हैं और मुँह से दुर्गंध आने लगती है।

इस लता के पत्ते छोटे, बड़े अनेक आकार-प्रकार के होते हैं, बीच में एक मोटी नस होती है और प्राय: इस पत्ते की आकृति मानव के हृदय (हार्ट) से मिलती-जुलती होती है, भारत के विभिन्न भागों में होने वाले पान के पत्तों की सैकड़ों किस्में हैं - कड़े, मुलायम, छोटे, बड़े, लचीले, रूखे आदि, उनके स्वाद में भी बड़ा अंतर होता है, कटु, कषाय, तिक्त और मधुर-पान के पत्ते प्राय: चार स्वाद के होते हैं, उनमें औषधीय गुण भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं, देश गंध आदि के अनुसार पानों के भी गुण-धर्म-मूलक सैकड़ों जातिनाम हैं जैसे- जगन्नाथी, बँगाली, साँची, मगही, सौंफिया, कपुरी, कशकाठी, महोबाई आदि, गर्म देशों में नमीवाली भूमि में ज्यादातर इसकी उपज होती है |  

भारत, बर्मा, श्रीलंका आदि में पान की अधिक पैदायश होती है, इसकी खेती के लिये बड़ा परिश्रम अपेक्षित है, एक ओर जितनी उष्णता आवश्यक है, दूसरी ओर उतना ही रस और नमी भी अपेक्षित है, देशभेद से इसकी लता की खेती और सुरक्षा में भेद होता है, पर सर्वत्र यह अत्यंत श्रमसाध्य है, इसकी खेती के स्थान को कहीं बरै, कहीं बरज, कहीं बरेजा और कहीं भीटा आदि भी कहते हैं, खेती आदि कतरने वालों को बरे, बरज, बरई भी कहते हैं, सिंचाई, खाद, सेवा, उष्णता, सौर, छाया आदि के कारण इसमें बराबर सालभर तक देखभाल करते रहना पड़ता है और सालों बाद पत्तियाँ मिल पानी हैं और ये भी प्राय: दो-तीन साल ही मिलती हैं, कहीं-कहीं ७ से ८ साल तक भी प्राप्त होती हैं, कहीं तो इस लता को विभिन्न पेड़ों-मौलसिरी, जयंत आदि पर भी चढ़ाया जाता है, इसके भीटों और छाया में इतनी ठंडक रहती है कि वहाँ साँप, बिच्छू आदि भी आ जाते हैं।

इन हरे पत्तों को सेवा द्वारा सफेद बनाया जाता है, तब इन्हें बहुधा पका या सफेद पान कहते हैं, बनारस में पान की सेवा बड़े श्रम से की जाती है, मगह के एक किस्म के पान को कई मास तक बड़े यत्न से सुरक्षित रखकर पकाते हैं, जिसे "मगही पान" कहा जाता है और जो अत्यंत सुस्वादु एवं मूल्यवान् जाता है, समस्त भारत में (विशेषत: पश्चिमी भाग को छोड़कर) सर्वत्र पान खाने की प्रथा अत्यधिक है, मुगल काल से यह मुसलमानों में भी खूब प्रचलित है, संक्षेप में, लगे पान को भारत का एक सांस्कृतिक अंग कह सकते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टि से पान एक महत्वपूर्ण वनस्पति है, पान दक्षिण भारत और उत्तर पूर्वी भारत में खुली जगह उगाया जाता है, क्योंकि पान के लिए अधिक नमी व कम धूप की आवश्यकता होती है, उत्तर और पूर्वी प्रांतों में पान विशेष प्रकार की संरक्षण शालाओं में उगाया जाता है, इन्हें भीट या बरोज कहते हैं पान की विभिन्न किस्मों को वैज्ञानिक आधार पर पांच प्रमुख प्रजातियों बंगला, मगही, सांची, देशावरी, कपूरी और मीठी पत्ती के नाम से जाना जाता है, यह वर्गीकरण पत्तों की संरचना तथा रासायनिक गुणों के आधार पर किया गया है, रासायनिक गुणों में वाष्पशील तेल का मुख्य योगदान रहता है, ये सेहत के लिये भी लाभकारी है, खाना खाने के बाद पान का सेवन पाचन में सहायक होता है।

पान में वाष्पशील तेलों के अतिरिक्त अमीनो अम्ल, कार्बोहाइड्रेट और कुछ विटामिन प्रचुर मात्रा में होते हैं, पान के औषधीय गुणों का वर्णन चरक संहिता में भी किया गया है, ग्रामीण अंचलों में पान के पत्तों का प्रयोग लोग फोड़े-फुंसी उपचार में पुल्टिस के रूप में करते हैं, हितोपदेश के अनुसार पान के औषधीय गुण हैं बलगम हटाना, मुख शुद्धि, अपच, श्वांस संबंधी बीमारियों का निदान पान की पत्तियों में विटामिन ए प्रचुर मात्रा में होता है, प्रात:काल नाश्ते के उपरांत काली मिर्च के साथ पान के सेवन से भूख ठीक से लगती है, ऐसा यूजीनॉल अवयव के कारण होता है, सोने से थोड़ा पहले पान को नमक और अजवायन के साथ मुंह में रखने से नींद अच्छी आती है, यही नहीं पान सूखी खांसी में भी लाभकारी होता है।

पान का सांस्कृतिक महत्व

भारत की सांस्कृतिक दृष्टि से तांबूल (पान) का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है, जहाँ वह एक और धूप, दीप और नैवेद्य के साथ आराध्य देव को चढ़ाया जाता है, वहीं श्रृंगार और प्रसाधन का भी अत्यावश्यक अंग है, इसके साथ-साथ विलासक्रीड़ा का भी वह अंग रहा है, मुख शुद्धि का साधन भी है और औषधीय गुणों से संपन्न भी माना गया है, संस्कृत की एक सूक्ति में तांबूल के गुण वर्णन में कहा है - वह वातध्न, कृमिनाशक, कफदोषदूरक, (मुख की) दुर्गंध का नाशकर्ता और कामग्नि संदीपक है, उसे धैर्य, उत्साह, वचनपटुता और कांति का वर्धक कहा गया है, सुश्रुत संहिता के समान आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथ में भी इसके औषधीय द्रव्यगुण की महिमा वर्णित है, आयुर्वेदिक चिकित्सको द्वारा विभिन्न रोगों में औषधों के अनुपान के रूप में पान के रस का प्रयोग होता है, आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी अन्वेषण द्वारा इसके गुणदोषों का विवरण दिया है।

पुराणों, संस्कृत साहित्य के ग्रंथों, स्तोत्रों आदि में तांबूल के वर्णन भरे पड़े हैं, शाक्त तंत्रों (संगमतंत्र-कालीखंड) में इसे सिद्धि प्राप्ति का सहायक ही नहीं कहा है, वरन् यह भी कहा है कि जप में तांबूल-चर्वण और दीक्षा में गुरु को समर्पण किए बिना सिद्धि अप्राप्त रहती है, उसे यश, धर्म, ऐश्वर्य, श्री वैराग्य और मुक्ति का भी साधक कहा है, इसके अतिरिक्त पाँचवीं शती के बाद वाले कई अभिलेखों में भी इसका प्रचुर उल्लेख है, इसी तरह हिंदी की रीतिकालीन कविता में भी तांबूल की बड़ी प्रशंसा मिलती है - सौंदर्यवर्धक और शोभाकारक रूप में भी और मादक, उद्दीपक रूप में भी।

राजाओं और महाराजाओं के हाथ से तांबूलप्राप्ति को कवि, विद्वान, कलाकार आदि बहुत बड़ी प्रतिष्ठा की बात मानते थे, नैषधकार ने अपना गौरववर्णन करते हुए बताया है कि कान्यकुब्जेश्वर से तांबूलद्वय प्राप्त करने का उन्हें सौभाग्य मिला था, मंगलकार्य में, उत्सवों में, देवपूजन तथा विवाहादि शुभ कार्यों में पान के बीड़ों का प्रयोग होता है और उसके द्वारा आगतों का शिष्टाचारपरक स्वागत किया जाता है, सबका तात्पर्य इतना ही है कि भारतीय संस्कृति में तांबूल का महत्वपूर्ण और व्यापक स्थान रहा है, भारत के सभी भागों में इसका प्रचार चिरकाल से चला आ रहा है, उत्तर भारत की समस्त भाषाओं में ही नहीं दक्षिण की तमिल (वेत्तिलाई), तेलगू (तमालपाडू नागवल्ली), मलयालम (वित्तिल्ला, वेत्ता) और कनाड़ी (विलेदेले) आदि भाषाओं में इसके लिये विभिन्न नाम हैं, बर्मी, सिंहली और अरबी फारसी में भी इसके नाम मिलते है, इससे पान की व्यापकता ज्ञात होती है।

भारत में पान खाने की प्रथा कब से प्रचलित हुई इसका ठीक-ठीक पता नहीं चलता परंतु "वात्स्यायनकामसूत्र" और रघुवंश आदि प्राचीन ग्रंथों में "तांबूल" शब्द का प्रयोग मिलता है, इस शब्द को अनेक भाषाविज्ञ आर्येतर मूल का मानते है, बहुतों के विचार से यवद्वीप इसका आदि स्थान है, तांबूल के अतिरिक्त नागवल्ली, नागवल्लीदल, तांबूली, पर्ण (जिससे हिंदी का पान शब्द निकला है), नागरबेल (गुजराती) आदि इसके नाम हैं, यह औषधीय काम में भी आता है पर इसका सर्वाधिक उपयोग के लिये होता है।

पान का वर्णन

पान एक ऐसा वृक्ष है जिसे अंगूर-लता की तरह ही उगाया जाता है, पान का कोई फल नहीं होता और इसे केवल इसकी पत्तियों के लिए ही उगाया जाता है, इसे प्रयोग करने की विधि यह है कि इसे खाने से पहले सुपारी ली जाती है, यह जायफल जैसी ही होती है पर इसे तब तक तोड़ा जाता है, जब तक इसके छोटे-छोटे टुकड़े नहीं हो जाते और इन्हें मुँह में रख कर चबाया जाता है, इसके बाद पान की पत्तियों के साथ इन्हें चबाया जाता है।

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